चुपचाप नशे से जूझती महिलाएं

सतह पर हैदराबाद की नशे की समस्या पुरुष प्रधान लगती है — पुनर्वास केंद्रों में भर्ती, पुलिस द्वारा बरामदगी, ओवरडोज़ के मामले और जागरूकता अभियान भी पुरुषों पर केंद्रित होते हैं। लेकिन चुपचाप, बंद दरवाज़ों के पीछे, शहर की कई महिलाएं धीरे-धीरे नशे की गिरफ़्त में आ रही हैं। ये महिलाएं इलाज से दूर, चुप्पी में और बहुत कम समर्थन के साथ जूझ रही हैं।

कार्यालय में मीटिंग्स से जूझती कामकाजी महिलाएं हों या घर पर मानसिक थकावट और अकेलेपन से जूझती गृहणियां — कई महिलाएं शराब, नींद की गोलियों या पेनकिलर्स का सहारा लेने लगी हैं। AIIMS और सामाजिक न्याय मंत्रालय की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 57 लाख से अधिक महिलाएं नशे की लत में पाई गईं — जिनमें नींद की गोलियां और दर्द निवारक प्रमुख थीं। लेकिन उनमें से केवल 5% ने ही कभी इलाज लिया। तेलंगाना में यह आंकड़ा और भी कम है।

पुरुषों के मुकाबले महिलाएं अपनी लत को लंबे समय तक छुपा कर रखती हैं। “जब महिलाएं इलाज के लिए आती हैं, तब तक वे सालों से इसका सेवन कर रही होती हैं,” कहते हैं हैदराबाद के क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. रवि दीपेंतला। “सामाजिक शर्म और डर उन्हें अपनी समस्या बताने तक से रोकता है। वे मां, पेशेवर, देखभालकर्ता होती हैं – मदद माँगना उनके लिए बहुत मुश्किल होता है।”

35 वर्षीय दिव्या, जो एक मार्केटिंग एक्ज़ीक्यूटिव थीं, बताती हैं कि उनका शराब पीना एक ग्लास वाइन से शुरू हुआ था। “COVID के दौरान यह आदत बन गई। मुझे नींद नहीं आती थी, anxiety बहुत बढ़ गई थी। मुझे नहीं लगा था कि मैं addict हूं, क्योंकि मैं घर और ऑफिस दोनों संभाल रही थी।” एक पैनिक अटैक के बाद उन्होंने मनोचिकित्सक से मदद ली।

हैदराबाद में कई de-addiction सेंटर हैं, लेकिन महिलाओं के अनुकूल नहीं हैं। राज्य में कोई महिला-केवल rehab सेंटर नहीं है। को-एड सेटअप में गोपनीयता और बच्चों के लिए कोई सुविधा नहीं होती। “ज्यादातर महिलाएं एक-दो सेशन के बाद छोड़ देती हैं,” कहते हैं डॉ. दीपेंतला।

अब सामाजिक कार्यकर्ता और काउंसलर महिला-केवल आउटपेशेंट प्रोग्राम, समुदाय आधारित काउंसलिंग और WhatsApp जैसे सुरक्षित, गुमनाम recovery समूह शुरू करने पर ज़ोर दे रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय नशा निषेध दिवस पर उनका कहना है कि यह केवल नशा छोड़ने की बात नहीं है — यह महिलाओं को बिना डर के सुना और समझा जाने का मौका देने की बात है।